हसन रज़ा (यू.एम.एफ़. झारखंड)
देश विभाजन की त्रासदी हो या बाबरी मस्जिद की घटना, मुस्लिम विरोधी दंगों का सिलसिला हो या उर्दू भाषा का झटका, गत 75 वर्षों में साम्प्रदायिक राजनीति का दंश सबसे ज़्यादा यूपी के मुसलमानों ने झेला है, इस लिए उम्मीद तो यही है कि यहाघ् के मुसलमान साम्प्रदायिकता की राजनीति का मुक़ाबला करने में दूसरे राज्यों के मुक़ाबले में ज़्यादा होशियारी और समझदारी का प्रदर्शन करेंगे। लेकिन अभी होनेवाले असेंबली इलेक्शन में जिस तरह सफ़ बंदी हो रही है, मुसलमानों की राजनैतिक पार्टियाघ् जो ज़बान बोल रही हैं उनसे जुड़े नौजवान जिस जोश का प्रदर्शन कर रहे हैं, विभिन्न पार्टियों से जुड़े मुस्लिम लीडर जो रवैया अपना रहे हैं, कुछ नुमायाघ् उलमा-ए किराम और जाने-माने बुद्धिजीवी जिस तरह चुनावी राजनीति में कन्फ़्यूज़न पैदा कर रहे हैं, इन बातों को देखकर डर लगता है कि क्या यू.पी. के मुसलमान किसी नई मुसीबत का शिकार न हो जाएं।
दोयम दर्जे के नागरिक तो मुसलमान 1967 ही में हो चुके थे जब वे जुलाई 1966 में मुस्लिम मजलिसे मुशावरत के 9 बिन्दुओं पर आधारित घोषणापत्र पर अमल न कर सके और आपसी मतभेद के कारण देश की चुनावी राजनीति पर प्रभाव डालने में असफल रहे। उसके बाद मजलिसे मुशावरत फिर संभल न सकी और मुसलमान राजनैतिक तौर पर प्रभावी होने की शक्ति खोते चले गए। क्योंकि कोई कम्युनिटी अपने सर्वसम्मत सामूहिक राजनैतिक घोषणापत्र के बिना दिशाहीनता का शिकार हो जाती है, फिर बिखराव और विरोधाभासी रवैया उसकी पहचान हो जाता है, जिसका नतीजा राजनैतिक और सामूहिक तौर पर महन्वहीन हो जाना है। यही हाल मुसलमानों का हुआ। 1999 तक हम इस महन्वहीनता का शिकार हो चुके थे। सच्चर कमेटी रिपोर्ट ने आईना दिखाया जिसके ज़रिये संभलने का मौक़ा मिला था, लेकिन हम ठीक से नहीं जागे और बिखराव पर मज़बूती से जमे रहे। आखि़रकार वाजपेयी से ज़्यादा संग दिल हिन्दुत्व नेतृत्व में दोबारा बी.जे.पी. और योगी को अल्लाह ने हम पर प्रभावी कर दिया।
इस तरह मुसलमान के राजनैतिक दुर्भाग्य का तीसरा दौर शुरू हुआ। और जो कुछ हुआ उसका मातम, मर्सिया और रुदन-गीत पिछले पाघ्च-सात बरसों से भारतीय विशेषकर असम और यू.पी. के मुसलमान ज़्यादा शिघ्त से कर रहे हैं। अब यू.पी. के लोगों को एक मौक़ा मिला है।
संयोग से क़ुदरत ने कुछ हालात को बेहतर और अनुकूल बनाने की राहें भी खोल दी हैं। किसान आन्दोलन के द्वारा एक नई प्रतिरोधक शक्ति को हिन्दुत्व की राह में खड़ा कर दिया है, जिससे पश्चिमी यू.पी. में हिंदू मुस्लिम राजनैतिक गठबंधन का एक अच्छा वातावरण बना है। इसको हर हाल में हमें मज़बूत करना चाहिए। परन्तु लगता है कि मुस्लिम लीडर अपनी ज़ाती और ख़ानदानी राजनैतिक उमंगों की तृप्ति में इस गठबंधन को नुक़्सान न पहुघ्चा दें।
कोरोना की महामारी की स्थिति ने सरकार की प्रशासनिक विफलता और मानव सेवा से आपराधिक लापरवाही ने योगी सरकार से आम लोगों को बहुत निराश किया है और इस मौक़े पर मुस्लिम समाज की समाज सेवा की भावना ने कुछ स्थानीय आबादियों के अंदर आपसी सहयोग के वातावरण को बढ़ाया है। चुनावी राजनीति में कोई बयान तक़रीर या रवैया ऐसा नहीं है जो समाज के लिए कल्याणकारी और मानवता की हितैषी की इस परिकल्पना को धुघ्धला कर दे। हम मतभेद भी सभ्य तरीक़े से करें और इज़हार भी बुद्धिजीवियों के स्तर से करें। आम अन्दाज़ हरगिज़ न हो, लेकिन अफ़सोस है कि यह ग़लती हो रही है।
योगी जी के ठाकुरवाद ने ब्रह्मणों और पिछड़ी बिरादरियों में एक खटास पैदा की है चुनाघ्चे एक वर्ग उनसे अलग हो गया है। इस वोट बैंक को बचाने में हिन्दुत्व फ़ोर्स लगी हुई है। उनको अपने फ़ोल्ड में लाने के लिए हिंदू एकता पिछड़ी बिरादरियों के साथ वादे करना बहुत अचूक नुस्ख़ा है। मुस्लिम एकता का फ़क़त नारा और वह भी बेमौक़ा और ग़लत ढंग से लगाया जाए तो क़ौमी कश्मकश को खाद उपलब्ध कर देता है। रेडिकल हिन्दुत्व को प्रोत्साहन देने का एक कारण यह भी है कि योगी जी जैसे लोगों के बारे में धारणा यह है कि मियां जी को ठीक करने के लिए ये कट्टर प्रकार के लीडर ही उचित हैं। अतः मुसलमानों की तरफ़ से क़ौमी कश्मकश की असमय रागनी मुसलमानों को कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाएगी, बल्कि कट्टरवादी लोगों की गिरती हुई साख को बचाने में मदद करेगी।
याद रहे कि अभी भी पांसा ठीक से पल्टा नहीं है। बी.जे.पी. की बी. टीम सी. टीम और कुछ उसके जैसी ज़मीं वाली चाल किसी वक़्त भी इलेक्शन के नतीजे कुछ से कुछ कर देसकती है। इलेक्शन के दिन तक कुछ साज़िशों और चालों की गुंजाइश रहती है।
स्पष्ट रहे कि साख गिरनी एक बात है, हुकूमत न बना पाना दूसरी बात है। यू.पी. में हुकूमत बनाने के लिए 36 प्रतिशत वोट काफ़ी है। और इसके लिए विरोधी वोट को बे-नतीजा करने का हुनर बी.जे.पी. को मालूम है साथ ही इस सिलसिले में मुस्लिम मिल्लत में ऐसे ग़ाज़ियों की कमी नहीं है जो पोरस के हाथी पर सवार होकर अपनी तरफ़ (Same side) गोल करने में नहीं झिझकते हैं। यू.पी. के अंदर जो लोग लोकतांत्रिक सार्वजनिक सोसल जस्टिस और धार्मिक उदारता की लड़ाई लड़ रहे हैं इसी सफ़ में मुसलमानों को भी दिमाग़ की पूरी होशियारी के साथ खड़े रहना चाहिए। वक़्ती तौर पर कुछ सीटों कुछ अरमानों की क़ुर्बानी करनी पड़े तो करनी चाहिए। हमारा वोट हमारी ग़फ़लत और बिखराव की वजह से जो बिलकुल शून्य बना दिया गया। इस चुनाव में इसका वज़न महसूस किया जाने लगे यही हमारा फ़िलवक़्त राजनैतिक हदफ़ होना चाहिए।अल्लाह हम सभों को हालात के साथ राजनैतिक प्राथमिकताओं को समझने का विवेक प्रदान करे।